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वर्तमान परिदृश्य में आजादी के मायने (JJ Blog )

Bhavbhoomi
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बंकिमचंद्र चटर्जी ने जब ‘ वंदे मातरम ‘ ( जो अब भारत का राष्ट्रगीत है ) लिखा तो भारतमाता का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जो सुजला , सुफला एवं शस्य -श्यामला है । एक समय भारत को ‘ सोने की चिड़िया ‘ कह जाता था । इस हिसाब से इस गीत में अतिशयोक्ति नहीं थी । उम्मीद थी कि जब भारत ब्रिटिश शासन से मुक्त होगा तो पुनः सोने की चिड़िया हो जाएगा । परन्तु आज जब हम यह पढ़ते हैं कि देश की बड़ी आबादी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है , वर्षा कम होने तथा सिंचाई की सुविधाओं के अभाव में खेत सूखे पड़े हैं तो सुजला एवं शस्य -श्यामला जैसे शब्द सुन्दर कल्पनाओं के समान प्रतीत होते हैं । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘ Where the mind is without fear and the head is held high ‘ लिखकर जब मन की व्यथा प्रकट की थी तो उनके मन में यह भाव भी था कि स्वतन्त्र भारत में लोग निर्भय होकर जी सकेंगे । स्पष्ट है इन महापुरुषों ने एक भयमुक्त एवं खुशहाल भारत का स्वप्न देखा था ।
स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नेताओं के विचार व्यापक थे । बालगंगाधर तिलक , महात्मा गाँधी , सुभाषचंद्र बोस , राजेंद्र प्रसाद इत्यादि नेताओं ने स्वतंत्र भारत के लिए बहुत से सपने संजोए थे । उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब केवल ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त होना नहीं था । उनके लिए आजादी का मतलब था – प्रत्येक नागरिक को विकास के अवसर प्रदान करना , वंचितों को अधिकार दिलाना , समाज का सर्वांगीण विकास करना । गाँधीजी ‘ सर्वोदय ‘ में विश्वास करते थे । वह देश के सभी नागरिकों के लिए तरक्की का पथ प्रशस्त करना चाहते थे । वह धन और शक्ति के केन्द्रीकारण के विरुद्ध थे । परन्तु आज स्थिति क्या है ? एक ओर देश में कई अरबपति हैं तो दूसरी ओर करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं । एक ओर विलासपूर्ण जीवन तो दूसरी ओर मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते लोग । क्या यह गाँधी के स्वप्नों का भारत है ?
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है – ‘भारतमाता ग्रामवासिनि ‘ । परन्तु ग्रामवासिनि भारतमाता के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोग शहर तथा महानगर की ओर पलायन कर रहे हैं । गाँधीजी गाँवों का विकास करना चाहते थे , पर कालांतर में भारत में नीति -निर्माताओं ने ऐसा विकास मॉडल बनाया कि महानगर तो आधुनिक सुख -सुविधाओं से संपन्न हो गये , किन्तु ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ गये । हमारे महान नेताओं को स्वदेशी में गहरा विश्वास था । पर स्वतंत्र भारत में विकास की प्रक्रिया अधिकांशतः पश्चिमी मॉडल पर ही चली । तीव्र आर्थिक विकास के नाम पर भारी उद्योग तो स्थापित हो गये , परन्तु लघु एवं कुटीर उद्योगों की उपेक्षा हुई । स्वदेशी ज्ञान -विज्ञान की ओर कम ध्यान दिया गया । आज अगर भारत में भीषण गरीबी तथा बेरोजगारी है तो उसके पीछे काफी हद तक दोषपूर्ण विकास मॉडल ही है ।
गाँधीजी ने सोचा था कि स्वतंत्र भारत में केवल आर्थिक स्तर उठाने की बात नहीं होगी , नैतिक स्तर का भी उन्नयन होगा । परन्तु कालांतर में भारत में केवल उच्च आर्थिक वृद्धि दर प्राप्त कर लेना महत्त्वपूर्ण रह गया , नैतिकता की बातें गौण हो गयी । जो निर्बल हैं उनमें कई अपने स्वाभाविक अधिकारों से वंचित हैं , जो सबल हैं उनमें कई को अपने कर्त्तव्यों का बोध नहीं है । न्याय व्यवस्था खर्चीली तथा जटिल है ।
कुल मिलकर यही निष्कर्ष निकालता है कि यदि हम अपने महान् नेताओं के स्वप्नों को पूरा करना चाहते है हमें काफी कुछ करना होगा । गरीबी मिटानी होगी , सबके लिए भोजन ,वस्त्र , आवास के आलावा शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाओं की व्यवस्था करनी होगी । न्याय व्यवस्था ऐसी बनानी होगी कि साधनहीन व्यक्ति भी सरलता से शीघ्र न्याय प्राप्त कर सके । आय की विषमताएँ तथा क्षेत्रीय विषमताएँ कम करनी होंगी । वर्त्तमान परिदृश्य में आजादी की जो तस्वीर उभरती है उसे काफी सजाने -सँवारने की जरूरत है ।

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